मूलम्-
सन्न्यासहेतुर्वैराग्यं यदहर्विरजेत् तदा ।
प्रव्रजेदिति वेदोक्तेस्तद्भेदस्तु पुराणगः ॥३॥
शब्दार्थ-सन्न्यासहेतुः- संन्यास का कारण
वैराग्यम्- वैराग्य है
यद् अह विरजेत्- जिस समय वैराग्य हो जाये
तदा प्रव्रजेत्- उसी क्षण प्रव्रज्या करे
इति वेदोक्तेः- इस वेद वचनानुसार ।
तद्- उस (वैराग्य के)
भेदः- प्रकार
पुराणगः- पुराणों से जाना जाता है ।
भावार्थ-
पूर्वश्लोक में बताये गये दोनों प्रकारके सन्न्यासका कारण वैराग्य है क्योंकी ‘यदहर्विरजेत् तदा प्रव्रजेदिति’ इस वेदवाक्यानुसार व्यक्तिको जिस समय वैराग्य हो उसी क्षण प्रव्रज्या करनी चाहिये । सन्न्यास का हेतु उस वैराग्य के प्रकार पुराणोंमें बताये गये हैं।
मूलम्-
विरक्तिर्द्विविधा प्रोक्ता तीव्रा तीव्रतरेति च ।
सत्यामेव तु तीव्रायां न्यस्येद् योगी कुटीचके ॥४॥
शब्दार्थ-विरक्तिः- वैराग्य
द्विविधा- दो प्रकारका
प्रोक्ता कहा गया है
तीव्रा- तीव्र और
तीव्रतर- तीव्रतर
सत्याम्- होने पर
तीव्रायाम्- तीव्र वैराग्य
न्यस्येद्- संन्यास धारण कर ले
योगी- योगी (व्यक्ति)
कुटीचके- कटीचक नामक संन्यास ।
भावार्थ-
वैराग्य दो प्रकार का होता है तीव्र और तीव्रतर । तीव्र वैराग्य होने पर व्यक्तिको कुटीचक नामक संन्यसको धारण कर लेना चाहिये ।
मूलम्-
शक्तो बहूदके तीव्रतरायां हंससंज्ञिते ।
मुमुक्षः परमे हंसे साक्षाद् विज्ञानसाधने ॥५॥
शब्दार्थ-शक्तः- सक्षम
बहूदके- बहूदक नामक संन्यस ।
तीव्रतरायाम्- तीव्रतर वैराग्य हो तो
हंससंज्ञिते- हंस नामक संन्यास
मुमुक्षः- मोक्षको चाहने वाला
परमे हंसे- परम हंस नामक संन्यास
साक्षात् विज्ञानसाधने- प्रत्यक्ष ज्ञान का साधन ।
भावार्थ-
तीव्र वैराग्यवान् व्यक्ति शरीरादि से सक्षम हो तो वह बहूदक संन्यसी हो जाये और यदि वैराग्य तीव्रतर हो तो वह हंस नामक संन्यासको धारण करे । तीव्रतर वैराग्यवान किसी व्यक्तिको यदि मोक्षकी आकांक्षा हो तो फिर वह साक्षात् ज्ञानका साधन परमहंस नामक संन्यास को धारण कर ले ।
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