जीवन्मुक्तिविवेकः २

 मूलम्-
 सन्न्यासहेतुर्वैराग्यं यदहर्विरजेत् तदा ।
 प्रव्रजेदिति वेदोक्तेस्तद्भेदस्तु पुराणगः ॥३॥
 शब्दार्थ-
 सन्न्यासहेतुः-  संन्यास का कारण
 वैराग्यम्- वैराग्य है
 यद् अह विरजेत्- जिस समय वैराग्य हो जाये
 तदा प्रव्रजेत्- उसी क्षण प्रव्रज्या करे
 इति वेदोक्तेः- इस वेद वचनानुसार ।
 तद्- उस (वैराग्य के)
 भेदः- प्रकार
 पुराणगः- पुराणों से जाना जाता है ।

 भावार्थ- 
पूर्वश्लोक में बताये गये दोनों प्रकारके सन्न्यासका कारण वैराग्य है क्योंकी ‘यदहर्विरजेत् तदा प्रव्रजेदिति’ इस वेदवाक्यानुसार व्यक्तिको जिस समय वैराग्य हो उसी क्षण प्रव्रज्या करनी चाहिये । सन्न्यास का हेतु उस वैराग्य के प्रकार पुराणोंमें बताये गये हैं।

 मूलम्-
 विरक्तिर्द्विविधा प्रोक्ता तीव्रा तीव्रतरेति च ।
 सत्यामेव तु तीव्रायां न्यस्येद् योगी कुटीचके ॥४॥
 शब्दार्थ-
 विरक्तिः- वैराग्य
 द्विविधा- दो प्रकारका
 प्रोक्ता कहा गया है
तीव्रा- तीव्र और
तीव्रतर- तीव्रतर
 सत्याम्- होने पर
 तीव्रायाम्- तीव्र वैराग्य
 न्यस्येद्- संन्यास धारण कर ले
 योगी- योगी (व्यक्ति)
 कुटीचके- कटीचक नामक संन्यास ।

 भावार्थ-
 वैराग्य दो प्रकार का होता है तीव्र और तीव्रतर । तीव्र वैराग्य होने पर व्यक्तिको कुटीचक नामक संन्यसको धारण कर लेना चाहिये ।

 मूलम्-
 शक्तो बहूदके तीव्रतरायां हंससंज्ञिते ।
 मुमुक्षः परमे हंसे साक्षाद् विज्ञानसाधने ॥५॥
 शब्दार्थ-
 शक्तः- सक्षम
 बहूदके- बहूदक नामक संन्यस ।
 तीव्रतरायाम्- तीव्रतर वैराग्य हो तो
 हंससंज्ञिते- हंस नामक संन्यास
 मुमुक्षः- मोक्षको चाहने वाला
 परमे हंसे-  परम हंस नामक संन्यास
 साक्षात् विज्ञानसाधने- प्रत्यक्ष ज्ञान का साधन ।

 भावार्थ-
 तीव्र वैराग्यवान् व्यक्ति शरीरादि से सक्षम हो तो वह बहूदक संन्यसी हो जाये और यदि वैराग्य तीव्रतर हो तो वह हंस नामक संन्यासको धारण करे । तीव्रतर वैराग्यवान किसी व्यक्तिको यदि मोक्षकी आकांक्षा हो तो फिर वह साक्षात् ज्ञानका साधन परमहंस नामक संन्यास को धारण कर ले ।

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