मूलम्
पुनरावृत्तिसहितो लोको मे मास्तु कश्चन ।
इति तीव्रतरत्वं स्यान्मन्दे न्यासो न कोऽपि हि ॥८॥
पुनरावृत्तिसहितः- जन्मजन्मान्तर सहित
लोकः- यह लोक
मे- मेरा
मा अस्तु- न हो
कश्चन- कोई भी
इति- इस प्रकारका
तीव्रतरत्वम्- तीव्रतरता ((वैराग्य की)
स्याद्- हो ।
मन्दे- मन्द (वैराग्य में)
न्यासः- संन्यास
न- नहीं
कोऽपि- कोइ भी।
भावार्थ-
‘मुझे जन्मजन्मान्तर सहित इस लोक में भी मुझे कुछ भी नहीं चाहिये’ यह वैराग्यकी तीव्रतरता है । यही तीव्रतर वैराग्य होने पर संन्यस का विधान है क्योंकी मन्द वैराग्य में तो किसी भी प्रकारका संन्यास नहीं होता ।
मूलम्
यात्राद्यशक्तिशक्तिभ्यां तीव्रे न्यासद्वयं भवेत् ।
कुटीचको बहूदश्चेत्युभावेतौ त्रिदण्डिनौ ॥९॥
यात्रादि- यात्रा आदि
अशक्तिशक्तिभ्याम्- अक्षमता तथा सक्षमता से
तीव्रे- तीव्र वैराग्य होने पर
न्यासद्वयम्- दो प्रकारका संन्यास
भवेत्- होता है ।
कुटीचकः- कुटीचक संन्यास और
बहूदः- बहूदक संन्यस
इति उभौ एतौ- ये दोनों कुटीचक और बहूदक संन्यास
त्रिदण्डिनौ- त्रिदण्डधारणपूर्वक होते हैं ।
भावार्थ-
तीव्र वैराग्य होने पर, तीर्थयात्रादि करने की शारीरिक सक्षमता वा अक्षमताके अनुसार कुटीचक और बहूदक नामक दो प्रकारके संन्यास होते हैं । ये दोनों ही प्रकारके संन्यासी त्रिदण्डधारी होते हैं ।