जीवन्मुक्तिविवेकः ४

मूलम्
 पुनरावृत्तिसहितो लोको मे मास्तु कश्चन ।
 इति तीव्रतरत्वं स्यान्मन्दे न्यासो न कोऽपि हि ॥८॥

 शब्दार्थ-
 पुनरावृत्तिसहितः- जन्मजन्मान्तर सहित
 लोकः- यह लोक
 मे- मेरा
 मा अस्तु- न हो
 कश्चन- कोई भी
 इति- इस प्रकारका
 तीव्रतरत्वम्- तीव्रतरता ((वैराग्य की)
 स्याद्- हो ।
 मन्दे- मन्द (वैराग्य में)
 न्यासः- संन्यास
 न-  नहीं
कोऽपि- कोइ भी।
 भावार्थ-
 ‘मुझे जन्मजन्मान्तर सहित इस लोक में भी मुझे कुछ भी नहीं चाहिये’ यह वैराग्यकी तीव्रतरता है । यही तीव्रतर वैराग्य होने पर संन्यस का विधान है क्योंकी मन्द वैराग्य में तो किसी भी प्रकारका संन्यास नहीं होता ।


 मूलम्
 यात्राद्यशक्तिशक्तिभ्यां तीव्रे न्यासद्वयं भवेत् ।
 कुटीचको बहूदश्चेत्युभावेतौ त्रिदण्डिनौ ॥९॥

 शब्दार्थ-
 यात्रादि- यात्रा आदि
 अशक्तिशक्तिभ्याम्- अक्षमता तथा सक्षमता से
 तीव्रे- तीव्र वैराग्य होने पर
न्यासद्वयम्- दो प्रकारका संन्यास
 भवेत्- होता है ।
 कुटीचकः- कुटीचक संन्यास और
 बहूदः- बहूदक संन्यस
 इति उभौ एतौ- ये दोनों कुटीचक और बहूदक संन्यास
 त्रिदण्डिनौ- त्रिदण्डधारणपूर्वक होते हैं ।
 भावार्थ-
 तीव्र वैराग्य होने पर, तीर्थयात्रादि करने की शारीरिक सक्षमता वा अक्षमताके अनुसार कुटीचक और बहूदक नामक दो प्रकारके संन्यास होते हैं । ये दोनों ही प्रकारके संन्यासी त्रिदण्डधारी होते हैं ।

जीवन्मुक्तिविवेकः ३

मूलम् 
पुत्रदारधनादीनां नाशे तात्कालिकी मतिः ।
 धिक् संसारमितीदृक् स्याद् विरक्तेर्मन्दता हि सा ॥६॥

 शब्दार्थ-
 पुत्रदारधनादीनाम्- स्त्रीपुत्रादि सम्पत्तियोंका
 नाशे- नाश होने पर
 तात्कालिकी- तत्कालिक
 मतिः- बुद्धि (जो)
 धिक् संसारम् इति- यह जगत झूठा है
 ईदृक- इस प्रकार की
 स्याद्-  हो तो वह
 विरक्तेः- वैराग्यकी
 मन्दता- निकृष्टता है ।
 भावार्थ-
 स्त्रीपुत्रादि सम्पत्तियोंके नाश होने पर जब व्यक्ति संसार झूठा है ऐसा समझकर थोडे समयके लिए उसके प्रति विरक्त हो जाता है तो यह मन्द प्रकार का वैराग्य कहलाता है ।


मूलम् 
 अस्मिन् जन्मनि मा भूवन् पुत्रदारादयो मम ।
 इति या सुस्थिरा बुद्धिः सा वैराग्यस्य तीव्रता ॥७॥
 
 शब्दार्थ
अस्मिन-  इस
 जन्मनि- जन्ममें
 मा भूवन्-  न हों
 पुत्रदारादयोः- स्त्रीपुत्रादि
 मम- मेरे ।
 इति-  ऐसा
 या- जो
 सुस्थिराः- दृढ
 बुद्धिः- बुद्धि
 सा- वह
 वैराग्यस्य- वैराग्यकी
 तीव्रता- तीव्रता है । तीव्र वैराग्य है ।
 भावार्थ
 इस जन्ममें मेरे कोई स्त्रीपुत्रादि सम्पत्ती नहीं हैं तो न ही हों ऐसी दृढमति हो जाये अर्थात् जीवनभर के लिए सभी प्रकारकी सुख सम्पत्तीयों से वैराग्य हो जाये तो वह तीव्र प्रकारका वैराग्य है ।

जीवन्मुक्तिविवेकः २

 मूलम्-
 सन्न्यासहेतुर्वैराग्यं यदहर्विरजेत् तदा ।
 प्रव्रजेदिति वेदोक्तेस्तद्भेदस्तु पुराणगः ॥३॥
 शब्दार्थ-
 सन्न्यासहेतुः-  संन्यास का कारण
 वैराग्यम्- वैराग्य है
 यद् अह विरजेत्- जिस समय वैराग्य हो जाये
 तदा प्रव्रजेत्- उसी क्षण प्रव्रज्या करे
 इति वेदोक्तेः- इस वेद वचनानुसार ।
 तद्- उस (वैराग्य के)
 भेदः- प्रकार
 पुराणगः- पुराणों से जाना जाता है ।

 भावार्थ- 
पूर्वश्लोक में बताये गये दोनों प्रकारके सन्न्यासका कारण वैराग्य है क्योंकी ‘यदहर्विरजेत् तदा प्रव्रजेदिति’ इस वेदवाक्यानुसार व्यक्तिको जिस समय वैराग्य हो उसी क्षण प्रव्रज्या करनी चाहिये । सन्न्यास का हेतु उस वैराग्य के प्रकार पुराणोंमें बताये गये हैं।

 मूलम्-
 विरक्तिर्द्विविधा प्रोक्ता तीव्रा तीव्रतरेति च ।
 सत्यामेव तु तीव्रायां न्यस्येद् योगी कुटीचके ॥४॥
 शब्दार्थ-
 विरक्तिः- वैराग्य
 द्विविधा- दो प्रकारका
 प्रोक्ता कहा गया है
तीव्रा- तीव्र और
तीव्रतर- तीव्रतर
 सत्याम्- होने पर
 तीव्रायाम्- तीव्र वैराग्य
 न्यस्येद्- संन्यास धारण कर ले
 योगी- योगी (व्यक्ति)
 कुटीचके- कटीचक नामक संन्यास ।

 भावार्थ-
 वैराग्य दो प्रकार का होता है तीव्र और तीव्रतर । तीव्र वैराग्य होने पर व्यक्तिको कुटीचक नामक संन्यसको धारण कर लेना चाहिये ।

 मूलम्-
 शक्तो बहूदके तीव्रतरायां हंससंज्ञिते ।
 मुमुक्षः परमे हंसे साक्षाद् विज्ञानसाधने ॥५॥
 शब्दार्थ-
 शक्तः- सक्षम
 बहूदके- बहूदक नामक संन्यस ।
 तीव्रतरायाम्- तीव्रतर वैराग्य हो तो
 हंससंज्ञिते- हंस नामक संन्यास
 मुमुक्षः- मोक्षको चाहने वाला
 परमे हंसे-  परम हंस नामक संन्यास
 साक्षात् विज्ञानसाधने- प्रत्यक्ष ज्ञान का साधन ।

 भावार्थ-
 तीव्र वैराग्यवान् व्यक्ति शरीरादि से सक्षम हो तो वह बहूदक संन्यसी हो जाये और यदि वैराग्य तीव्रतर हो तो वह हंस नामक संन्यासको धारण करे । तीव्रतर वैराग्यवान किसी व्यक्तिको यदि मोक्षकी आकांक्षा हो तो फिर वह साक्षात् ज्ञानका साधन परमहंस नामक संन्यास को धारण कर ले ।

जीवन्मुक्तिविवेकः १

प्रथमं जीवन्मुक्तिप्रकरणम्

मूलम् 
यस्य निःश्वसितं वेदा यो वेदेभ्योऽखिलं जगत् । 
निर्ममे तमहं वन्दे विद्यातीर्थमहेश्वरम् ॥१॥ 
शब्दार्थ
यस्य- जिसका
निःश्वसितम्- श्वासप्रश्वास रूप
वेदाः- वेद हैं
यो- जो (जिसने)
वेदेभ्यः- वेदों से
 अखिलं जगत्- सम्पूर्ण जगत को
निर्ममे- बनाया ।
अहम्- मैं
तम् विद्यातीर्थमहेश्वरम्- उन विद्यातीर्थमहेश्वर भगवान शङ्करको
वन्दे- वन्दन करता हुँ ।

भावार्थ-
मैं सभी विद्याओंके तीर्थरूप उन भगवान शङ्करकी वन्दना करता हुँ जिन्होंने अपने निःश्वासभूत वेदोंसे इस सम्पूर्ण जगतकी रचना की ।

मूलम् 
वक्ष्ये विविदिषान्यासं विद्वत्न्यासं च भेदतः । 
हेतू विदेहमुक्तेश्च जीवन्मुक्तेश्च तौ क्रमात् ॥२॥
शब्दार्थ
वक्ष्ये- कहुँगा
 विविदिषान्यासं- विविदिषा संन्यासको
विद्वन्न्यासं च- विद्वत्संन्यासको भी
भेदतः- अलग अलग
हेतू- कारण
विदेहमुक्तेः- विदेहमुक्तिका
च- एवं
जीवन्मुक्तेश्च- जीवन्मुक्तिका भी
तौ- वे दोनों( विद्वत्संन्यास एवं विविदिषासंन्यास)
क्रमात्- एक एक कर ।

भावार्थ-
विद्वत्संन्यास और विविदिषासंन्यास की अलग अलग व्याख्या करेगें जो विदेहमुक्ति और जीवन्मुक्ति के कारण हैं ।